किसी भी कला को सत्ता नहीं, जनता जीवित रखती है | जनता उसे जब तक दिलों में सजाए रखती है, सत्ता की मजबूरी रहती है कि उस कला को संरक्षण एवं प्रोत्साहन देती रहे | जब जनता ही अपनी कला को भूलने लगे तो समझिए की मामला कुछ और है | कभी लाखों दिलों को अपना दीवाना बनाने वाली नाट्य कला नौटंकी आज संकटग्रस्त है | कोई प्रयोगधर्मी कलाकार इसमें हाथ लगाना नहीं चाहता | अभी तक इंतज़ार हो रहा है कि कब कोई पश्चिम का कलाकार इसे सराहे और नया मोड़ दे | शायद तब हम समझें कि यह हमारी अमूल्य विरासत है | उत्तर भारत की, लोकप्रदर्शन कलाओं में सर्वाधिक प्रचलित लोकनाट्य है नौटंकी, जो पश्चिम की नाट्यविधा ओपेरा से मिलती-जुलती है | जनता के मनोरंजन का सबसे सुलभ साधन ‘नौटंकी में सिर्फ मनोरंजन ही नहीं होता, समाज, धर्म और लोकरीति की पड़ताल भी होती है |’ यह लोकप्रिय गीतिनाट्य मुख्यतः उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार और छत्तीसगढ़ में खेला जाता है |
नौटंकी की उत्पत्ति भगत, स्वांग और पारसी थियेटर के योग से हुई | इसकी तकनीक और कथ्य पारसी नाटकों से दूर तक प्रभावित रहा है | डॉ. बाबूराम सक्सेना ने ‘तारीख-ए-अदब उर्दू’ में लिखा है कि ‘नौटंकी का आरंभ उर्दू शायरी और लोकगीतों से हुआ था |’ इसका प्रचलन पन्द्रवीं-सोलहवीं शताब्दी के आसपास से मिलता है |
नौटंकी ही नही यह अधिकतर सभी लोकनाट्यों की विशेषता है कि उनके विषय में देश-काल और समाज के अनुसार बदलाव आता है | प्रेम से परिपूर्ण घटनाओं के साथ ही धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक चरित्रों पर भी नौटंकी होती हैं, जिसमें सत्यहरिश्चंद्र, मोरध्वज, पूरनमल प्रमुख हैं | स्त्रियों के प्रवेश से सामाजिक-घरेलु विषय पर ‘नादान बालम’, ‘ननद-भौजाई’ तथा प्रेम केन्द्रित ‘लैला मजनू’ शम्सा फिरोज आदि बहुत ही मशहूर हुइ |
अपने लचीले पन के कारण नौटंकी ने अपने भीतर तमाम समस्याओं को समेटा, आज़ादी की लड़ाई के वक़्त देश प्रेम को लेकर कई नौटंकी लिखी गई | इसके विषय भारत में राष्ट्रवाद उदय के साथ परिवर्तित भी हुए | कुछ नौटंकी स्वतंत्रा सेनानियों पर खेली गयीं; ‘झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई’, ‘सुभास चन्द्र बोस’, ‘बंगाल का शेर’, ‘अबुल कलाम आजाद’, ‘जवाहर जीवन’ और ‘राजेंद्र प्रसाद जी’ आदि | समाजिक सरोकार की दृष्टि से दहेज प्रथा विरोधी, जमींदार और ठाकुरशाही पर व्यंग्य करने वाली कहानियों पर नौटंकी खेली जाती रहीं | धीरे-धीरे नौटंकी नए मोड़ पर आ पहुँची | साहूकार और धनीजन की फरमाइश से तथा फिल्मों की शौक मिज़ाजी के प्रभाव में नौटंकी से सामाजिकता, धार्मिकता तथा पौराणिकता दूर होती चली गयी और उसमें थोथा मनोरंजन भरने लगा | फ़िल्मी ‘रंगीन’ गीतों ने नौटंकी में गाये जाने वाले लोकगीतों का स्थान ले लिया | फिर भी दर्शकों की रुची से प्रणयी, भक्त, और वीर पुरुषों पर नौटंकी प्रचलित रहीं जिसमें सामाजिक पक्ष मौजूद हैं | लोकप्रिय फिल्मों को भी नौटंकी के मंच पर खेला गया |
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हाथरस की नौटंकी विशेष रूप से लोकप्रिय हो रही थी जिसके मुख्य प्रयोगकर्ता पं. नथाराम शार्मा थे | उन्होंने ‘नौटंकी को जिवंत ही नही बनाया वरन उसे जन-जन से जोड़ने का कार्य भी किया |’ नैतिकता का विकास, देश प्रेम एवं वीरता-पराक्रम की भावना को उजागर करना उनकी नौटंकियों का मुख्य कथ्य रहा | ‘नत्था चिंगारी-मंडली’ उस समय की प्रमुख व्यावसायिक मण्डली के रूप में प्रसिद्ध हुई थी | इनके अतिरिक्त हाथरस में बटुक नाथ, कल्याण राय तथा दीपचंद दीपा आदि के नाम से मंडलियाँ थी | हीरामणि सिंह ‘साथी’ ने लिखा है कि उन दिनों नौटंकियों की लोकप्रियता एवं शोहरत से अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के तमाम लोगों ने हिंदी सीखना शुरू कर दिया था | हाथरस नौटंकी शैली को स्थापित करने वाले पं. नथाराम शर्मा की तरह कानपूर के श्रीकृष्ण पहलवान ने भी कानपूर शैली को स्थापित किया, जिनकी परम्परा में गुलाब जान आती हैं | पहलवान की नौटंकी शैली में गायकी, अदाकारी, तथा नृत्य पर लखनऊ संगीत शैली का प्रभाव दृष्टव्य है | हाथरस और कानपुर शैलियों की आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण नौटंकी को पुरे देश में शोहरत और अधिक मिली | तिरमोहन उस्ताद ने कन्नौज की नौटंकी शैली को नया आयाम दिया, साथ ही अन्य कलाकारों को साथ जोड़कर उसका विकास किया | जगनिक के आल्ह-खंड पर आधारित तिरोमोहन ने अनेक नौटंकियाँ खेलीं, जिसने राष्ट्रीय समर्पण, शौर्य और प्राक्रम जगाने का कार्य किया |
नौटंकी में नृत्य, गीत, और संगीत प्रमुख रहा | इसका का प्राण तत्व नगाड़ा है जिसकी गड़गड़ाहट खेल में आदि से अंत तक गूंजती है | नगाड़ा की थाप से शकुन्तला हो या सीता, जैला हो या शीरी मंच पर आती और नगाड़े के साथ ही अभिनय तथा संवाद संप्रेषित करती है | विदूषक(जोकर) नौटंकी का विशेष पात्र होता है | जो विदूषक दर्शकों का पूर्ण मनोरंजन कराने में सक्षम होता है वही अच्छा और नामी विदूषक माना जाता है | विदूषक का मुख्य कार्य सूत्रधार का होता है किंतु बदलते दौर के साथ उसका का कार्य फूहड़ हास-परिहास हो गया | यही वजह है कि शिक्षित-सभ्य कहलाने वाला व्यक्ति सामाजिक-मर्यादा के कारण नौटंकी से कटता है | फूहड़ता का कारण नौटंकी कलाकार का गरीब होना | अमीरों थोथा मनोरंजन करने पर मजबूर किया |
नौटंकी खेलने का समय, विभिन्न अवसरों पर या मेला-उत्सव के समय साल के बारहों मास चलता है, अधिकतर अप्रैल से जुलाई तक और अक्टूबर से फरवरी तक कुछ ज्यादा ही | विचारणीय यह है कि नगाड़ा, हारमोनियम, ज़ील, ढोलक, मंजीरा आदि को देख कर जिन गांववालों में रक्त का संचार बढ़ जाता है, गाँव में सुग-बुगाहट बढ़ जाती है कि फला कम्पनी आयी हुई है, यह सुनकर श्रमिकों की आधी थकान समाप्त हो जाती है | वह लोकनाट्य नौटंकी, टीवी-सिनेमा से अपने अस्तित्व को बाचने के लिए संघर्ष कर रही है | जिस विधा ने लाखों लोगों का अपना दीवाना बनाया हो और पराधीन भारत के किसान हृदय में स्वाधीन चेतना की चिंगारी जलाने में सहायक हो, क्या ऐसी कला को पुनः जीवित नहीं किया जा सकता ? आज विभिन्न प्रदर्शन कलाओं के उत्कर्ष पर नगाड़े की आवाज़ जनता के दिलों तक नहीं पहुँचाई जा सकती ? क्या हम उसकी शैली मात्र पर भी कार्य करने में अक्षम हैं ? साहित्य, सिनेमा और रंगमंच ने इस शैली में भी कोई विशेष रुची नहीं दिखाई | कुछ वर्षों पहले नौटंकी के रेडियों से हुए कुछ प्रसारण और लखनऊ में ‘नौटंकी कला केंद्र’ की स्थापना से कुछ उम्मीद की जा रही थी लेकिन कोई सकारात्मक कार्य देखने को नही मिला | ये लोग नौटंकी जनता के दिलों तक पंहुचाने में नाकाम रहे | इधर कुछ गिने चुने कार्य हुए जैसे- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का ‘बकरी’ नाटक और बासु चटर्जी की फिल्म ‘तीसरी कसम’ | इसके अतिरिक्त कोई संतोष जनक कार्य नहीं हुआ | स्थिति यह है कि आज अपने शोर-शराबे से दूर तन्हाई में भटक रही नौटंकी मौलिक कार्य के लिए बाट जोह रही है, कब कोई सनम नाटककार व साहित्यकार मिले जो उसे पं. नथाराम शार्मा या श्रीकृष्ण पहलवान जैसा प्रेम कर सके |
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(जनसत्ता)