प्रो. तुलसीराम से मेरी मुलाक़ात एम.फिल. (जेएनयू) के पहले सेमेस्टर में उस समय हुई, जब मैंने उनका कोर्स ‘इंटरनेशनल कम्युनिस्ट मूवमेंट’ लिया था। चूंकि मेरी रुचि रूसी राजनीति में थी इसलिए मैंने उस सत्र में रूसी भाषा के अलावा प्रो. अनुराधा मित्र चिनॉय, प्रो. तुलसीराम और प्रो. अरुण मोहंती के कोर्स लिये थे। शुरुआती दिनों में ही मुझे यह अहसास हो चला था कि तुलसीराम सर एक ऐसी किताब हैं जिसका कवर तो बड़ा सीधा-सादा और सपाट दिखता था, मगर हर पन्ने की अपनी विशेषता थी, जिससे हमें कुछ नया सीखना था। कक्षा के दौरान वे इतिहास को इस तरह समझाते थे कि मानों वे घटनाएँ हमारी आंखों के सामने ही घट रही हों। प्रो. तुलसीराम की यह ख़ासियत थी कि उनकी टीचिंग-लर्निंग पद्धति सिर्फ किताबी ज्ञान देने तक सीमित नहीं थीं, बल्कि वह उस समय के विभिन्न संदर्भों से जुड़ी रहती थी। उनकी एक बात जो मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित करती थी, वह थी- तथ्यों पर उनकी जबरदस्त पकड़। लोगों के नाम, वर्ष, घटनाक्रम सब उनकी ज़बान पर रहते थे। अक्सर उन्हें नोट्स की जरूरत ही नहीं पड़ती थी, वे कक्षा में आते और नरेटिव्स की शैली में पढ़ाना शुरू कर देते।
नरेटिव्स पर तुलसीराम सर की जो पकड़ हमें उनकी आत्मकथाओं में दिखाई देती हैं, वैसी ही उनकी कक्षाओं में दिखाई देती थी। जिस शैली में उन्होंने अपनी जीवनगाथा दर्ज़ की, उसी शैली में हमने उनसे अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन का इतिहास सुना है। उनके कक्षा व्याख्यानों में घटनाओं और अवधारणाओं का सिलसिला इस तरह से नरेटिव्स में आता था कि वह उस थीम की समग्र तस्वीर हमारे सामने रख देता था। सोवियत संघ से लेकर क्यूबा तक फैले कम्यूनिस्ट आंदोलन के इतिहास की कॉम्पेलेक्सिटी को तुलसीराम सर अपने नरेटिव्स में एकदम सरलता से हमारे सामने रख देते थे। आज जहाँ दुनिया भर में कम्युनिस्ट आंदोलन की प्रासंगिकता खोजी जा रही है, उस समय हमने यह इतिहास इतने रोचक ढंग से पढ़ा- यह प्रो. तुलसीराम की वजह से ही संभव हुआ। नरेटिव शैली में कैसे पढ़ाया जाय- उनकी कक्षाएँ इसका बेहतरीन उदाहरण रही हैं।
तुलसीराम जी का अध्ययन-अध्यापन का अनुभव इतना व्यापक था और उनकी याददाश्त इतनी तेज थी कि यदि क्लास का कोई छात्र नकल करता था तो पकड़ा जाता था। हमारे प्रजेंटेशन्स को वे एकदम ध्यानमग्न होकर सुनते थे और जब वे उस पर कमेंट करते थे तो हमें हमारा ही लिखा नए तरीके से दिखाई देने लगता था। मैंने उन्हें हमेशा विद्यार्थियों को उत्साहित करते हुए पाया। वे इतने अप्रोचेबल थे कि चाहे आप उनके स्टूडेंट हो या न हो- उनसे सहज मिल सकते थे। कई बार हम सर से बात करने के लिए ही उनके साथ चलते-चलते लिफ्ट में तीसरी मंज़िल तक चले जाते थे। उनके कमरे में, वे या तो किसी से बातचीत करते हुए मिलते थे या फिर पढ़ते हुए। आंखों में तकलीफ़ होने के बावजूद भी वे पढ़ते रहते थे। तबीयत लगातार खराब रहने पर भी वे नियमित क्लास लेते थे। यदि उनके डायलिसिस के दिन भी हमारी क्लास होती, तब भी वे क्लास के बाद ही अस्पताल जाते थे। आखिरी दिनों में जब उनकी आवाज कमज़ोर हो रही थी, तब भी वे क्लास लेते थे। सर का पेपर पहले सत्र में ही खत्म हो गया था लेकिन मैं बाद में भी अक्सर उनसे बात करने जाती थी। उनसे यह इंटरेक्शन बहुत अच्छा रहता था। वे अपने जीवन के व्यापक अनुभवों को हमारे साथ सहजता से बांटते थे।
प्रो. तुलसीराम मेरे लिए सोवियत संघ की धरोहर थे; जिनकी आंखों से मैंने उस समय को देखा, जब सोवियत रूस एक महाशक्ति के रूप में अमरीका के सामने खड़ा था। उन्होंने सोवियत संघ के समय की कॉमिंटर्न की बहसों को बहुत ही सरलता से समझाया। जब सोवियत संघ बन रहा था, उस समय दुनिया में साम्यवाद के विस्तार को लेकर बहुत सी बहसें हुई थीं। उन बहसों के बारे में वे इतना स्वाभाविक रूप से बताते थे कि मानों वे स्वयं उन बहसों में मौजूद रहे हों। प्रो. तुलसीराम उन अध्यापकों में से थे, जिनकी क्लास के बाद हमेशा इस बात की प्रेरणा मिलती थीं कि संबंधित प्रसंगों पर बहुत-सा पढ़ना चाहिए। इसी प्रेरणा से मैंने पहले ही सेमेस्टर में ई.एच. कार, जॉन रीड आदि की किताबें पढ़ी ली थीं। मैं शुरुआत में उन्हें अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के विद्वान के रूप में ही जानती थी। धीरे-धीरे मेरे हिन्दी के दोस्तों के जरिए मैंने जाना कि वे हिन्दी लेखक के रूप में इतने ज्यादा प्रसिद्ध हैं कि कई लोगों को यह भ्रम है कि तुलसीराम सर जेएनयू में हिन्दी के प्रोफेसर हैं।
मैं बंबई जैसे महानगर में पली-बढ़ी थी, संभवत: इसलिए जाति के बारे में मेरे अनुभव बहुत सीमित थे। जातिवाद के कटु यथार्थ का परिचय मुझे तुलसीराम सर की आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ से हुआ। मेरे घर में हिन्दुस्तानी बोली जाती है, फिर भी हिन्दी पढ़ना मेरे लिए मुश्किल था। जब उनकी ‘मुर्दहिया’ प्रकाशित हुई तो मैंने सर से यह कहा भी था कि यदि जल्दी से इसका अंग्रेजी अनुवाद हो जाए, तो मेरे जैसे लोग भी पढ़ लेंगे। लेकिन मैंने अपनी उत्सुकता और दोस्तों से प्रेरित होकर उसे हिन्दी में ही पढ़ लिया। ‘मुर्दहिया’ मुझे इसलिए भी याद रहेगी कि यह मेरी हिन्दी में पढ़ी गई पहली किताब है। जब मैंने सर को बताया कि मैंने ‘मुर्दहिया’ पढ़ ली, तो वे बहुत खुश हुए और उस पर चर्चा करने लगे। मेरे यह बताने पर कि मुझे भोजपुरी के गीत नहीं समझ आए, उन्होंने मुझे उसी समय कुछ गीतों के अर्थ समझाए और उस पर हो रहे शोधकार्यों के बारे में भी बताया। उन्होंने उस समय मुझे आत्मकथा के दूसरे भाग ‘मणिकर्णिका’ के बारे में भी बताया। ‘मणिकर्णिका’ जैसे ही प्रकाशित हुई, मैंने उसे पढ़ लिया। उनके शब्दों से मैंने हिन्दुस्तान के एक महत्वपूर्ण विश्वविद्यालय के जीवन के साथ-साथ उस समय के कम्युनिस्ट आंदोलन के बारे में भी जाना। जेएनयू में हम लोग गोरख पाण्डे की कविताएँ पढ़ते-सुनते ज़रूर थे, लेकिन उनका व्यक्तित्व हमारे लिए मिथकीय था, ‘मणिकर्णिका’ से गोरख को हमने एक दोस्त, एक शोधार्थी, एक विद्रोही और एक इंसान के रूप जाना। प्रो. तुलसीराम की नरेटिव्स पर पकड़ कक्षा में और ‘मुर्दहिया’ एवं ‘मणिकर्णिका’ में एक जैसी दिखाई देने का मतलब यह है कि मौखिक और लिखित दोनों रूपों में उनके नरेटिव्स समान रूप से प्रभावकारी होते थे। कहानी कहने-लिखने का उनका तरीका इतना ज़बरदस्त है कि मुझे ग़ालिब याद आते हैं-
है और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयां और
एक तरफ उनके जीवन के संघर्षों और कठिनाइयों के बारे में जानकर जहाँ आंखे नम हो जाती थीं और अपने प्रिविलेज का अहसास होता था, वहीं सर की किस्सागोई शैली में ‘डबल सिंह’ जैसे किस्से पढ़कर मैं लोटपोट हो गई थी।
फिर एक दिन सर ने बातचीत में बताया कि आत्मकथा का अगला भाग जेएनयू पर होगा, जिसका नाम ‘जेएनयू मौसी’ है क्योंकि बीएचयू उनकी माँ था, जहाँ उनकी पढ़ाई की ललक शुरू हुई, वहीं जेएनयू ने उनकी उस ललक पुख़्ता किया और ताउम्र उसमें उन्हें जोड़े रखा, इसीलिए जेएनयू को वे अपनी मौसी मानते थे। मुझे यक़ीन है कि इस किताब का मेरे अलावा और बहुत से लोग भी इंतज़ार कर रहे थे। इसमें वे लोग भी शामिल हैं, जिनका जेएनयू से किसी-न-किसी रूप में जुड़ाव रहा है। मुझे इस किताब का इंतज़ार इसलिए भी था कि प्रो. तुलसीराम के विद्यार्थी जीवन के जेएनयू के बारे में मैं जान पाती कि वह आज से कितना अलग था और कितना आज जैसा। और, तुलसीराम सर के उन सहपाठियों के विद्यार्थी जीवन के बारे में भी जान पाती जो आज अपने-अपने क्षेत्रों में मशहूर हस्तियाँ हैं।
मेरे लिए प्रो. तुलसीराम अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के विद्वान ही नहीं थे, बल्कि भारतीय राजनीति और समाज को व्याख्यायित करने वाले शख्स थे। स्कूल में आते-जाते सर से मुलाकात होना, या कभी यूँ ही टहलते हुए उनके कमरे पर जाकर उनसे मिलना अब बहुत याद आता है। गर्मियों की भरी दोपहर में तुलसीराम सर को आते देखकर ऐसा महसूस होता था कि एक छायादार दरख़्त हमारी ओर चला आ रहा है। अब हर साल वैसी ही गर्मियाँ होंगी, वैसी ही दोपहर होंगी, मगर अब वो दरख़्त कहीं दिखाई नहीं देगा।
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